होली उत्सव का रहस्य और पूरी जानकारी | Holi utsav ka rahasya aur puri janakari

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हैप्पी होली 2017 | Happy Holi 2017 | होली उत्सव की शुभकामनाएं

होली भारत का बहुत ही लोकप्रिय और हर्षोल्लास से परिपूर्ण त्यौहार है। लोग चन्दन और गुलाल से होली खेलते हैं। प्रत्येक वर्ष मार्च माह के आरम्भ में यह त्यौहार मनाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि होली के चटक रंग ऊर्जा, जीवंतता और आनंद के सूचक हैं। होली की पूर्व संध्या पर बड़ी मात्रा में होलिका दहन किया जाता है और लोग अग्नि की पूजा करते हैं।

होलिका दहन की कहानी | Holika Dahan Ki Kahani in Hindi

प्रह्लाद से जुड़ी एक किंवदंति के अनुसार तभी से होली का त्यौहार आरम्भ हुआ था। प्रह्लाद ईश्वर को समर्पित एक बालक था, परन्तु उसके पिता ईश्वर को नहीं मानते थे। वह बहुत दंभी (घमंडी) और क्रूर राजा थे। तो कहानी कुछ इस तरह से आगे बढ़ती है कि प्रह्लाद के पिता एक नास्तिक राजा थे और उनका ही पुत्र हर समय ईश्वर का नाम जपता रहता था। इस बात से आहात हो कर वह अपने पुत्र को सबक सिखाना चाहते थे। उन्होंने अपने पुत्र को समझाने के सारे प्रयास किए, परन्तु प्रह्लाद में कोई परिवर्तन नहीं आया। जब वह, प्रह्लाद को बदल नहीं पाए तो उन्होंने उसे मारने की सोची। इसलिए उन्होंने अपनी एक बहन की मदद ली। उनकी बहन को यह वरदान प्राप्त था कि यदि वह अपनी गोद में किसी को भी ले कर अग्नि में प्रवेश करेगी तो स्वयं उसे कुछ नहीं होगा परन्तु उसकी गोद में बैठा व्यक्ति भस्म हो जाएगा। राजा की बहन का नाम होलिका था। होलिका ने प्रह्लाद को जलाने के लिए अपनी गोद में बिठाया, परन्तु प्रह्लाद के स्थान पर वह स्वयं जल गई और “हरि ॐ” का जाप करने एवं ईश्वर को समर्पित होने के कारण, प्रह्लाद की आग से रक्षा हो गई और वह सुरक्षित बाहर आ गया।
कुछ गावों में लोग अंगारों पर से हो कर गुजर जाते हैं और उन्हें कुछ भी नहीं होता, उनके पैरों में छाले/फफोले भी नहीं पड़ते! विश्वास में बहुत शक्ति होती है। जीवन में विश्वास का बड़ा योगदान होता है। आने वाले मानसून पर होलिका दहन का प्रभाव पड़ता है।
होलिका भूतकाल के बोझ का सूचक है जो प्रह्लाद की निश्छलता को जला देना चाहती थी। परन्तु नारायण भक्ति से गहराई तक जुड़े हुए प्रह्लाद ने सभी पुराने संस्कारों को स्वाहा कर दिया और फिर नए रंगों के साथ आनंद का उद्गम हुआ। जीवन एक उत्सव बन जाता है। भूतकाल को छोड़ कर हम एक नई शुरुआत की तरफ बढ़ते हैं। हमारी भावनाएं आग की तरह हमें जला देती हैं, परन्तु जब रंगों का फव्वारा फूटता है तब हमारे जीवन में आकर्षण आ जाता है। अज्ञानता में भावनाएं एक बोझ के समान होती हैं, जबकि ज्ञान में वही भावनाएं जीवन में रंग भर देती हैं। सभी भावनाओं का सम्बन्ध एक रंग से होता है जैसे कि – लाल रंग क्रोध से, हरा इर्ष्या से, पीला पुलकित होने या प्रसन्नता से, गुलाबी प्रेम से, नीला रंग विशालता से, श्वेत शान्ति से और केसरिया संतोष/त्याग से एवं बैंगनी ज्ञान से जुड़ा हुआ है। त्यौहार का सार जान कर ज्ञान में होली का आनंद उठाएं।

होली क्यों मनाई जाती है और क्या सिखाती है।

जीवन रंगों से भरा होना चाहिए! प्रत्येक रंग अलग-अलग देखने और आनंद उठाने के लिए बनाए गए हैं। यदि सभी रंगों को एक में मिला कर देखा जाए तो वे सभी काले दिखेंगे। लाल, पीला, हरा आदि सभी रंग अलग-अलग होने चाहिए, पर साथ ही हमें इनका आनंद भी एक साथ उठाना चाहिए। इसी प्रकार व्यक्ति द्वारा जीवन में निभाई जाने वाली भूमिकाएँ, उसके भीतर शांतिपूर्ण एवं पृथक रूप से अलग-अलग विद्यमान होनी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति अपनी “पिता” वाली भूमिका कार्यालय में भी निभाने लगे तो भगवान् ही मालिक है। पर हमारे देश में कभी-कभी नेता पहले पिता बन कर और बाद में नेता बन कर सोचते हैं।
हम चाहे जिस भी परिस्थिति में हों, हमें अपना योगदान शत-प्रतिशत देना चाहिए और तब हमारा जीवन रंगों से भरा रहेगा! प्राचीन भारत में इसी संकल्पना को “वर्णाश्रम” कहा गया है। इसका अर्थ है-प्रत्येक व्यक्ति-चाहे वह डाक्टर, अध्यापक, पिता या कुछ और हो, उससे वह भूमिका पूरे उत्साह के साथ निभाने की अपेक्षा की जाती है। व्यवसायों को आपस में मिला देने से उत्पादनियता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यदि कोई डाक्टर व्यवसाय करना चाहता है तो उसे अपने डाक्टर पेशे को प्राथमिकता न देते हुए, अलग से व्यवसाय करना चाहिए न कि चिकित्सा को ही अपना व्यवसाय बना लेना चाहिए। मन के इन भिन्न ‘पात्रों’ को अलग एवं पृथक रखना सुखी जीवन का रहस्य है औरहोली हमें यही सिखाती है।
सभी रंगों का उद्गम सफ़ेद रंग से हुआ है पर इन सभी रंगों को आपस में मिलाने पर ये काले रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। जब हमारा मन उज्जवल और चेतना शुद्ध, शांत, प्रसन्न एवं ध्यानस्थ हो तो विभिन्न रंग एवं भूमिकाओं का जन्म होता है। हमें वास्तविक रूप से अपनी सभी भूमिकाओं को निभाने की शक्ति प्राप्त होती है। हमें अपनी चेतना में बार-बार डुबकी लगानी होगी। यदि हम केवल बाहर ही देखते रहे और आस-पास के बाहरी रंगों से खेलते रहे तो हम अपने चारों ओर अन्धकार पाने के लिए मजबूर हो जाएंगे। अपनी सभी भूमिकाओं को पूरी निष्ठा एवं गंभीरता के साथ निभाने के लिए हमें भूमिकाओं के मध्य गहन विश्राम लेना होगा। गहन विश्राम में बाधा पंहुचाने वाला सबसे बड़ा कारक इच्छाएं हैं। इच्छाएं तनाव की द्योतक हैं। यहाँ तक कि छोटी सी/ तुच्छ इच्छा भी बड़ा तनाव देती है। बड़े-बड़े लक्ष्य अक्सर कम चिंताएं देते हैं ! कई बार इच्छाएं मन को यातना भी देती हैं।
एक ही रास्ता है कि इच्छाओं पर ध्यान ले जाएँ और उन्हें समर्पित कर दें। इच्छाओं अथवा कर्म के प्रति सजग होना या ध्यान ले जाने को “कामाक्षी” कहा जाता है। सजगता से इच्छाओं की पकड़ कम हो जाती है, और आसानी से समर्पण हो जाता है और तब अपने भीतर अमृत धारा फूट पड़ती है। देवी “कामाक्षी” ने अपने एक हाथ में गन्ना पकड़ रखा है और दूसरे में एक फूल। गन्ना काफी सख्त होता है और उसकी मिठास प्राप्त करने के लिए उसे निचोड़ना पड़ता है। जबकि फूल कोमल होता है और इससे रस निकालना बेहद आसान है। वास्तव में जीवन में भी तो यही होता है। जीवन इन्ही दोनों का मिश्रण है! इस परमानन्द को बाहरी संसार से प्राप्त करने की तुलना में अपने ही भीतर प्राप्त करना काफी आसान है जबकि बाहरी संसार में इसके लिए बहुत प्रयास करने पड़ते हैं।
आनंद भरे रंगों से अपनी आत्मा को ऊपर उठाएं - श्री श्री रवि शंकर जी

होली की कथाएँ जानिए | Story about Holi in hindi

‘पुराण’ शब्द का उद्गम संस्कृत के ‘पुर नव’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है ‘जो नगर में नया है’। पुराण तथ्यों/ बातों को नए ढंग से प्रस्तुत करने का तरीका है। यह रंग-बिरंगे कथा-कहानियों से परिपूर्ण ग्रन्थ है। सतह पर तो ये कहानियाँ काल्पनिक लगती हैं परन्तु वास्तव में इनमें अति सूक्ष्म सत्य है।
एक असुर राजा हिरण्यकश्यप चाहता था कि सभी उसकी पूजा करें। परन्तु उसका अपना ही पुत्र ‘प्रह्लाद’ उस राजा के घोर शत्रु भगवान नारायण का परम भक्त था। इस बात से क्रोधित राजा अपनी बहन होलिका की सहायता से प्रह्लाद से मुक्ति चाहता था। अग्नि में भी न जलने की शक्ति प्राप्त होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में ले कर जलती हुई आग (चिता) में बैठ गई। परन्तु इस आग में होलिका स्वयं जल गई और प्रह्लाद आग में से सही-सलामत बाहर निकल आया।
यहाँ हिरण्यकश्यप बुराई का प्रतीक है और प्रह्लाद निश्छलता, विश्वास एवं आनंद का। आत्मा को केवल भौतिक वस्तुओं के प्रति ही प्रेम रखने के लिए ही सिमित नहीं किया जा सकता। हिरण्यकश्यप भौतिक संसार से मिलने वाला समस्त आनंद चाहता था, पर ऐसा हुआ नहीं। किसी जीवात्मा को सदा के लिए भौतिकता में कैद नहीं रखा जा सकता। इसका अंततः अपने उच्चतर स्व अर्थात नारायण की ओर बढ़ना स्वाभाविक है।

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